झुक रही हैं दीवारें शायद थोड़ी
सहारा देने के लिए।
घंटो इन दीवारों को घूरा है मैंने
कुछ धब्बे हैं शायद सीलन के,
कुछ निशान हैं पुराने पेंट के,
कुछ तो गड्ढे भी हैं शायद
कही कील ठोकने के।
एक घडी है जो पौने आठ पे अटकी है,
खिड़की है जो रात में अँधेरा सोक लेती है,
ऊपर एक उंगाता सा पंखा
गर्मियों के इंतज़ार में रुका पड़ा है।
सहारा देने के लिए।
घंटो इन दीवारों को घूरा है मैंने
कुछ धब्बे हैं शायद सीलन के,
कुछ निशान हैं पुराने पेंट के,
कुछ तो गड्ढे भी हैं शायद
कही कील ठोकने के।
एक घडी है जो पौने आठ पे अटकी है,
खिड़की है जो रात में अँधेरा सोक लेती है,
ऊपर एक उंगाता सा पंखा
गर्मियों के इंतज़ार में रुका पड़ा है।
समझ रही हैं शायद वो भी
सुन्न पड़ा है सब
और सर्दियों के अँधेरे में
जम रहा है सब।
आँखें अँधेरे में बुन रही हैं,
वही तस्सवुर का जाल
जो टूट जायेगा सुभह
रौशनी की पहली किरण के साथ।
सुन्न पड़ा है सब
और सर्दियों के अँधेरे में
जम रहा है सब।
आँखें अँधेरे में बुन रही हैं,
वही तस्सवुर का जाल
जो टूट जायेगा सुभह
रौशनी की पहली किरण के साथ।
इसिलिये झुक रही हैं दीवारें शायद थोड़ी
सहारा देने के लिए।
सहारा देने के लिए।
एक लडकी थी, जो हमेशा अपने को इन चार दिवारो में बंद करती थी, जरा इन चार दिवारो के बाहर तो आ जाना ये बहुत खुबसुरत है .....
ReplyDeletenice to meet u strenger blogger. awesome poem fantastic thought, i m wordless about ur imagination.
ReplyDeleteplzz visit whenever u hv time rajc936.blogspot.in